प्रेम और वासना
बड़ा विस्तृत
इतिहास का हिस्सा है जिसमें विद्वानों ने प्रेम और वासना के इस द्वैत की चर्चा की,
इस पर मन्तव्य लिखे और पता नहीं क्या क्या किया। अब ये जो कुछ भी किया गया इसे समझ
लेना जरूरी है ताकि इस पर कोई सार्थक बात कही जा सके।
प्रेम द्वैत से
शुरू होता है। यहाँ शुरु में दो होते हैं। कुछ कारणों से दोनों में पारस्परिक
सहअस्तित्व की कामना होती है। विज्ञान इन कारणों को रासायनिक मानता है और
फ़ेरोमोन्स पर आधारित शास्त्र के द्वारा इक सहकार की भावना को समझाता है। परस्पर
एक दूसरे के कॉम्पलीमेंटरी फ़ेरोमोन्स आपस में खिंचते हैं, आकर्षित होते हैं। धर्म
इसमें संस्कार और नियति की भूमिका देखता है। जब दो व्यक्तियों के संस्कार और नियति
जुड़ते हैं तभी उनमें सहकार की भावना और प्रेम आदि पनपते हैं। संस्कार उन्हें
नज़दीक लाते हैं और नियति उन्हें साथ रखती है।
परन्तु इन दोनों
ही धाराओं से एकतरफ़ा प्रेम प्रसंगों को समझने में कठिनाई होती है। उन्हें
फ़ेरोमोन्स की अपूर्णता कहें या संस्कारों और नियति का मज़ाक कहें ये एकतरफा प्रेम
प्रसंग बहुत दुरूह होते हैं।
लेकिन सिद्धान्तों
और मूल्यों से परे जब आप अपने ऑब्ज़र्वेशन पर ध्यान देते हो तो आप को इस सृष्टि
में अधूरेपन की एक पूरी शृंखला दिखाया देती है। बिल्कुल ही आधार में पुरुष-प्रकृति
(चेतन व जड़ के द्वैत) के अधूरेपन की शृंखला है। दोनों अधूरे हैं एक दूसरे से
मिलकर पूरे होते हैं। इनके मिलने से ही सृष्टि बन सकती है वरना नहीं। यह अधूरे पन
का पहला स्तर है।
अधूरेपन का दूसरा
स्तर है नर और मादा का। बनी हुई सृष्टि को ना नर चला सकता है और ना मादा। दोनों
मिलकर पूर्णता प्राप्त करते हैं तो सृष्टि आगे बढ़ती है। जीवन के हर स्तर पर यह है
चाहे वह विकसित बौद्धिकता वाला जीवन हो या पेड़ पौधों का अविकसित बौद्धिकता वाला।
कुछ छोटे एक कोशीय जीवों में लिंग संरचना स्पष्ट नहीं होती परन्तु वह भी
स्वःविभाजन से ही पूर्णता पाता है।
अधूरेपन के अन्य
स्तर भी हैं जिससे व्यक्तियों (व्यक्ति विशेषों) में भी अपूर्णता दिखाई देती है।
कोई अपनी प्रवृत्तियाँ एक दिशा में जाती हुई पाता है तो दूसरा दूसरी दिशा में।
परन्तु इन अपूर्णताओं का इस विषय से कम ही सम्बंध है अतः उन्हें फ़िलहाल छोड़ा जा
सकता है।
यह समझ लिया जाना
चाहिये कि अस्तित्व एक अपूर्ण अर्द्धक है। आधे गोले की तरह। यह दूसरे गोलार्ध से
मिलकर ही पूरा हो पायेगा। अतः दूसरे अर्द्धक की खोज किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व
की पहली शर्त है। यदि व्यक्ति है तो उसमें अपनी पूर्ति करने वाले दूसरे अर्द्धक की
खोज भी होगी। यह उसी तरह से है जैसे एक व्यक्ति जीवित है तो उसमें प्राण भी होगा।
यह दूसरे अर्द्धक की ललक भी प्राण की ललक जैसी ही है। उतनी ही इन्टैंस।
पूर्णता की यह इन्टैंसिफ़ाईड ललक ही प्रेम का बीज है। यह ललक बीज है। प्रेम
इसका वृक्ष है। प्रेम इसी ललक की व्यापकता है। रूप परिवर्तन है – मैटामॉर्फोसिस है।
यह जीवन के अस्तित्व की आवश्यक शर्त है।
परन्तु प्रेम की
एक समस्या है। यह एक ललक है, चाहत है, ईक्षा है, चेष्टा है। यह बिल्कुल ही
एब्सट्रैक्ट है। इसका कोई रंग रूप आकार प्रकार नहीं है। इसे पकड़ कर कनस्तर में
नहीं बंद किया जा सकता है। यह सूक्ष्म है। परन्तु इसकी इसी समस्या ने हमें
समाधान के बहुत निकट पहुँचा दिया है।
इस सूक्ष्म एवँ
अंगविहीन प्रेम के उद्देश्य को पूरा करने के लिये जीवों ने अनेक उपकरण विकसित किये। अपने अधूरेपन
की विकट समस्या से जूझते जीवों के इन उपकरणों में जब ऊर्जा का संचार होता है तो
श्रमण धारा के लोगों ने इस ऊर्जा को वासना कहा। समय बीतने से साथ साथ आश्रम में
रहने वाले गुरुओं ने इस शब्द को वर्जित शब्द बना डाला। परन्तु अपने मूल रूप में यह
जीवों की इन्द्रियों में बहने वाली ऊर्जा ही है। इसी से सृष्टि को आगे बढ़ाने की
योजना पूरी हो पाती है। जो जगत् को जीवित रखती है उस ऊर्जा को बुरा कहने की हिम्मत
जुटा पाना एक बड़ा काम था जो कुछ गुरूओं ने दुस्साहसिकता की हद तक किया।
ख़ैर यह जान लें
कि वासना एक ऊर्जा है जो उपकरणों में संचरित होती है। यह शरीर के स्तर पर प्रकट
होती है और वहीं खर्च हो जाती है। भीतरी प्रेम परतों से इसे कोई लेना देना नहीं
होता है। शारीरिक घटना होने से ही यह बहुत छोटे समय के लिए होती है। एकदम उभरती है
और शरीर पर अपना प्रभाव छोड़कर कर तत्काल समाप्त हो जाती है।
प्रेम भीतर के
स्तर पर है। शरीर से भीतर चेतन स्तर पर। इसीलिये वह शरीर के थक जाने से समाप्त नहीं
होता। उसके होने में और ना होने में शरीर का योगदान नहीं होगा। अतः आपके लिये यह
टैस्ट भी है। ध्यान से देख लीजिएगा। जितना भाग शरीर में पैदा हुआ या शरीर के कारण
पैदा हुआ वह वासना का था और जितना भाग भीतर आत्मा में पैदा हुआ वह प्रेम था।
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